जीने की आदत Living life out of habit

जीने की आदत

जीने की आदत पड़ गयी है
जीवन को जीने की ऐसी आदत में
बरसात के दिन हैं यदि
तो जीने की आदत में
बरसात हो रही होती है
छाता भूल गया तो
जीवन जीने की आदत में
छाता भूल जाता हूँ
और भींग जाता हूँ
जब बिजली कौंध जाती है
तब बिजली कौंध जाती है
 
आदतन जीना, उठना, बैठना, काम करना
थोड़े थोड़े भविष्य से ढेर सारे अतीत इकट्ठा करना
बचा हुवा तब भी ढेर सारा भविष्य होता है
ऐसे में ईश्वर है कि नहीं की शंका में कहता हूँ मुझे अच्छा मनुष्य बना दो
और सबको सुखी कर दो
तदानुसार अपनी कोशिश में पता नहीं कहाँ से आदत से अधिक दुः ख की बाढ़ आती है
 
जैसे पड़ोस में ही दुःख का बांध टूटा हो
और सुख का जो एक तिनका नहीं डूबता
दुःख से भरे चेहरे के भाव में
मुस्कुराहट सा तैर जाता है
 
न मुझे डूबने देता है, न पड़ोस को
और जब बिजली कौंध जाती है
तब बिजली कौंध जाती है
 
अंधेरे में बिजली कौंध जाने के उजाले में
सम्हलकर एक कदम आगे रख देता हूँ
जीवन जीने की ऐसी आदत में
जब मैं मर जाऊँगा
तो कोई कहेगा शायद मैं मरा नहीं
तब भी मैं मरा रहूँगा
बरसात हो रही होगी
तो जीवन जीने की आदत में
बरसात हो रही होगी
और मैं मरने के बाद
जीवन जीने की आदत में
अपना छाता भूल जाऊँगा
 

Original Poem by

Vinod Kumar Shukla

Translated by

Mohini Gupta with The Poetry Translation Workshop Language

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